Thursday, February 23, 2017

मेरी कलम से...

" आज़माईश का सिलसिला यूँ ही चलता गया,
हर चेहरे में कई परतें थीं, और मैं बस पढ़ता गया "

Tuesday, January 31, 2017

खुशियों का राज़

ये किस्सा है याद शहर के मशहूर इंजीन्यरिंग कॉलेज का| नितिन, यही नाम था शायद उस सीधे-साधे और लड़कियो में हैंडसम लड़को मे काउंट होने वाले उस लड़के का जो कॉलेज के पहले दिन जूनियरस की लाइन में सबसे पीछे खड़ा था| नितिन कुछ अपने पापा के ऑर्डर पर, कुछ मम्मी की इच्छा और रिश्तेदारों की सलाह और थोड़े बहुत अपने मन से इस कॉलेज में आया था| नितिन एक मध्यम वर्गीय परिवार का सीधा सा लड़का था जिसका घर याद शहर से थोड़ा दूर था और वो यहाँ कॉलेज के एक हॉस्टल में बाकी के फ़र्स्ट ईयर और फोरथ ईयर के साथ रहता था| बाकी के सेकंड ईयर और थर्ड ईयर इसी के सामने के कॉलेज हॉस्टल में रहते थे|
                                    आज कॉलेज का पहला दिन था और दस्तूर के मुताबिक सीनियर्स ने जूनियर्स को अपने सीनियर होने का एहसास दिलाना शुरू कर दिया था| वो कभी भी किसी से इंटरों के लिए कह देते या फिर मज़ाक के नाम पर जूनियर्स से कुछ न कुछ करवाते रहते थे|
                                 
नितिन इन चीज़ो से अब परेशान सा होने लगा था| पहली बार घर और मम्मी-पापा से दूरी और बात-बात पर सीनियर्स के खौफ़ से नितिन अब जैसे टूटने सा लगा था|

शायद कहीं न कहीं इसकी वजह कॉलेज में हद से ज्यादा होने वाली पढ़ाई और पेपर्स भी थे| वहाँ स्टूडेंट्स को गधों की तरह काम दे कर पढ़ाई करने पर मजबूर कर दिया जाता और बात-बात पर फ़ेल करने की धमकी दी जाती थी| हाँलकि और सब को इन चीज़ो की आदत होने लगी थी पर नितिन अभी भी माँ-बाप की याद, सीनियर्स, पढ़ाई और मेस के खाने के खौफ़ मे ही जी रहा था|

कुछ दिन यूँ ही चलने के बाद कॉलेज मे परीक्षायेँ शुरू हो गईं थी| इन सब परेशानियों के बीच नितिन के परीक्षा देने का रिज़ल्ट यह रहा कि वो दो मेंन विषयों में फ़ेल हो गया| इस पर उसके पापा को कॉलेज बुलवाया गया और उसका रिज़ल्ट बताया गया| घर वापस जाते वक़्त उसके पापा ने बस इतना ही कहा, “बेटा! घर कि अब सारी उम्मीदें तुम से ही हैं तो हो सके तो हमें कभी निराश मत करना| इन शब्दों के साथ पापा तो घर वापस चले गए पर ये शब्द रात भर नितिन के कानों में गूँजते रहे|
                                   
रात में यूँ ही पढ़ते वक़्त जब नितिन को उन किताबों में कुछ नहीं समझ आ रहा था तो उसने परेशान होकर किताबें बंद की और रात के करीब 1:00 बजे हॉस्टल की छत पे जाकर बाउंडरी के पास खड़ा हो गया और न जाने इस बीच कब नितिन की आंखें गीली हो गईं और परेशानियाँ आँसू बन कर उसकी आंखो में आ गईं|

 पर नितिन ने अभी अपने आँसू पोछें भी नहीं थे कि अचानक उसके कंधे पे किसी ने हाथ रखा और उसे आँसू पोछने को कहा। नितिन एक पल को डर सा गया और जब पीछे मुड़ा तो उसे रात के अंधेरे में एक शख्स दिखा। नितिन कुछ पूछता उससे पहले ही उसने कहा कि “आज जिन परेशानियों कि वजह से तुम रो रहे हो, एक दिन तुम उन पर और अपने इस रोने पर ही हँसोगे।”

नितिन ने बड़ी धीमी सी आवाज मे पूछा, “आपको कैसे पता की मैं कौन सी परेशानी मे हूँ?” इस पर उस शख्स ने कहा, “मैं राकेश हूँ, फोर्थ ईयर स्टूडेंट और मुझे भी पता है शुरुआत के दिन कैसे होते हैं। जैसा तुम अभी महसूस कर रहे हो मैं भी ऐसा ही करता था। तुम्हें ये पता होना चाहिए कि तुम यहाँ पढ़ाई के
साथ-साथ इस तरह की दिक्कतों का सामना करना भी सीखोगे क्यूंकि इसी का नाम कॉलेज लाइफ है और ये हमेशा फिल्मों में दिखाई गई कॉलेज लाइफ की तरह नहीं हो सकती।”
                               
इस पर नितिन ने बस इतना कहा, “ये सब मेरे लिए नया है और इसलिए मैं कुछ समझ ही नहीं पा रहा कि क्या करूँ।”
कुछ पल शांत रह कर राकेश ने उसे दो बॉल दीं, छोटी-छोटी नीलें रंग की और कहा, “इनमे से एक बॉल लाइफ की खुशियाँ है और दूसरी परेशानियाँ। तुम जब भी परेशान होना तो इन्हे अपनी हथेली पर एक साथ पकड़ने की कोशिश करना और रोल करना और तुम देखोगे कैसे ये दोनों एक दूसरे को पीछे कर ऊपर आना चाहतीं हैं और इस तरह तुम परेशानी को परेशान देखकर थोड़ा खुश जरूर हो सकते हो।”
राकेश ने नितिन से कहा, “अब तुम्हें जाकर सो जाना चाहिए।”

इतना कहने पर जब नितिन जाने लगा तो राकेश ने फिर उसे टोका और कहा, “नितिन फ़ेल होने से तो कभी डरना ही मत क्यूंकि तुम्हारे एच.ओ.डी. सर जो तुम्हें मैथ्स पढ़ाते हैं वो अपने टाइम में खुद दो-चार सबजेक्ट्स में फ़ेल थे, तो कुछ नहीं तो तुम फ़ेल होकर भी इस कॉलेज में फ़ैकल्टि तो बन ही सकते हो।”
                              
इतना सुन कर नितिन हँस पड़ा और एक मुस्कुराहट के साथ अपने रूम मे वापस आ गया। अगले दिन से नितिन थोड़ा-थोड़ा खुश रहना सीखने लगा था। हाथों मे दो बॉल देखकर लोग अब दोस्त उस पर हँसते जरूर थे पर नितिन भी उसकी हँसी में शामिल हो जाता था।
                                
आज कल राकेश और नितिन कई बार रात को छत पर मिल लेते थे। पर कुछ दिनो बाद नितिन छुट्टियों में घर चला गया था और जब वापस आने पर जब कई दिनो तक राकेश सर उसे नही मिले तो उसने सोचा क्यूँ न आज उनके रूम मे ही जाकर उन्हें मिला जाए और वो थर्ड फ्लोर के रूम नंबर 304 में पहुँच गया जैसा की राकेश उसे बताता था। पर वहाँ जाकर उसे पता लगा कि वहाँ तो फ़र्स्ट ईयर रहता है न कि कोई फोर्थ ईयर का राकेश।

थोड़ा खोजबीन करने के बाद नितिन को पता चला कि राकेश शर्मा जैसा कोई फोर्थ ईयर हॉस्टल में नहीं रहता और एक राकेश शर्मा जो कि फोर्थ ईयर में पढ़ता था उसकी मौत दो साल पहले ही हो चुकी है। एक बार फोर्थ ईयर में फ़ेल हो जाने पर जब उसे किसी जॉब इंटरव्यू में नहीं बैठने दिया गया तब उसने अपने रूम 304 में खुदखुशी कर ली थी।

इतना सुनकर नितिन ख़मोश हो गया और फिर कभी छत जाने कि हिम्मत नहीं कर सका। पर अपने इस अनुभव को उसने कॉलेज में किसी के साथ शेयर नहीं किया और खुद में ही रखा।

कुछ महीनों बाद नितिन फिर से नॉर्मल होकर कॉलेज लाइफ बिताने लगा था। अब नितिन सेकंड ईयर मे आ गया था और नियमों के मुताबिक उसे अपने हॉस्टल के सामने वाले हॉस्टल में शिफ्ट करना पड़ा। एक बार फिर जब कॉलेज में नए स्टूडेंट्स आये तो उनके साथ फिर से कॉलेज के हर दस्तूर निभाए जाने लगे। अब नितिन भी सीनियर हो चुका था। एक दिन यूंहि रैगिंग लेते वक़्त नितिन को एक लड़का दिखा जो कि हु-ब-हु वैसा ही था जैसा कि नितिन जब कॉलेज में आया था। उस लड़के का नाम आकाश था। आकाश भी उसी हॉस्टल में रह रहा था जहां फ़र्स्ट ईयर में नितिन रह चुका था।
                                     
कुछ दिनो तक तो नितिन ने आकाश को आब्ज़र्व किया और उसे हमेशा परेशान रहता देख उसने सोचा कि कभी समय निकाल कर वो आकाश से बात करेगा और उसे समझाएगा।

पर जब एक दिन अचानक उसने आकाश को देखा तो वह हैरान सा रह गया क्यूंकि आकाश आज बहुत खुश था और उसके हाथों में दो वैसी छोटी-छोटी बॉल थीं जैसी बहुत समय पहले नितिन को किसी ने दीं  थीं और आकाश उन बॉल को हथेली पर रोल कर रहा था।
                                   
नितिन ने हैरान हो कर एक पल आकाश को देखा और फिर एक टक उस फ़र्स्ट ईयर हॉस्टल कि छत को देखता रह गया मानों कोई आखें उसे भी छत से देख रहीं हों।                                     
 
                                        

मेस वाला छोटू

छोटू ये शब्द हम कई बार सुनते हैं। कभी किसी चाय की दुकान में, कभी सड़क के किनारे बने ढाबों में, या फिर किसी घर में काम कर रहे नौकर की पहचान के रूप में। कई बार ऐसा लगता है कि ये शब्द हमें उस शख़्स की पहचान नहीं बल्कि समाज में उसकी औकात के बारें में बताते हों।
                             
ऐसा ही एक छोटू था एक किसी शहर के नामी इंजीन्यरिंग कॉलेज के कॉलेज हॉस्टल के मेस में। नाम की तरह अभी उस छोटू की उम्र भी छोटी ही थी, यही कोई बारह-तेरह साल के आस-पास शायद। छोटू मेस में स्टूडेंट्स की मेज़ तक पानी पहुँचाता और मेस के छोटे-मोटे और भी काम करता था। छोटू अभी कुछ महीने पहले ही मेस में आया था, अपनी माँ के देहांत के बाद अपने पिता के साथ।

छोटू के चेहरे पर वो हर वक़्त मुस्कुराहट और उसका हमेशा गानों को गुनगुनाते रहना मेस में उसकी पहचान सी बन गयी थी। अपनी इन्ही अदातों के चलते अब कई स्टूडेंट्स उसके दोस्त भी बन चुके थे।
अगस्त का महीना था और कॉलेज में नए स्टूडेंट्स आने लगे थे और कॉलेज की परंपरा निभाते हुए सीनियर्स ने अपने जन्मसिद्ध अधिकार रैगिंग लेना भी शुरू कर दिया था।

उस रात मेस में सभी हॉस्टल के बच्चे डिनर कर रहे थे और हमेशा की तरह छोटू उन्हें पानी वगैरह दे रहा था कि तभी उसकी नजर मेज़ के कॉर्नर में दीवार की तरफ बैठे एक लड़के पे गई और छोटू को वो कुछ डरा और परेशान सा लगा।

वो था मैकनिकल फ़र्स्ट ईयर का साकेत’, जो की हमेशा गम्भीर रहना पसंद करता था। पर आजकल घर वालो से दूर, पहली बार हॉस्टल लाइफ का अनुभव और साथ ही कॉलेज और हॉस्टल में लगातार होने वाली रैगिंग से वो बहुत परेशान सा था।
                              
छोटू उस दिन पानी देते वक़्त गाये जा रहा था, “जीवन चलने का नाम........,चलते रहो सुबहो-शाम....। ये पंक्तियाँ सुनकर साकेत छोटू की तरफ देखने लगा और छोटू ने उसे एक छोटी सी मुस्कान पास कर दी। शायद कॉलेज में छोटू अब साकेत का पहला दोस्त बनने वाला था क्यूंकि शायद कुछ रिश्ते एक छोटी सी मुस्कान से भी शुरू किये जा सकते हैं।

ऐसे ही दिन बितते जा रहे थे और छोटू-साकेत का ये मुस्कान वाली दोस्ती का दस्तूर चलता रहा और शायद अब साकेत को छोटू एक अंजान दोस्त सा लगने लगा था।

एक दिन यूँ ही रात में खाते वक़्त जब छोटू साकेत के पास पानी देने आया तो साकेत ने पूछा, “सिर्फ यही करते हो कि स्कूल भी जाते हो?” इस पर छोटू ने जवाब ना देते हुए साकेत से छोटू ने खुद पुछ लिया, “सिर्फ उदास और दुखी ही रहते हो या फिर हँसना भी जानते हो?” ये कहकर छोटू अपने पानी के जग और अपनी मुस्कान के साथ वहाँ से चला गया।

रात भर बहुत देर तक साकेत छोटू के जवाब या फिर कहा जाये तो सवाल के बारे में सोचता रहा।
अगले दिन सनडे था तो साकेत और कुछ दोस्त कॉलेज ग्राउंड मे बैठे तफरी और दुनिया के हर स्टूडेंट की तरह अपने कॉलेज की बुराई कर रहे थे। तभी साकेत ने देखा, आज छोटू ग्राउंड में बैठा कुछ पन्नों के साथ कुछ बना रहा था। साकेत उसके पास गया और कुछ देर तक उसे देखने के बाद कल वाला सवाल उससे फिर से पूछ लिया, इस पर छोटू ने उसे देखा और कागज़ से बना एक प्लेन उसे पकड़ाते हुये अपने पास बैठने का इशारा किया और कहा, “तुमको पता है मुझसे ये सवाल बहुत लोगों ने पूछा और फिर थोड़ा ढुख जता कर और समाज़ के लिए थोड़ा गुस्सा दिखा कर, कुछ दिनों बाद सब कुछ भूल जाते हैं।”
                           
ये सब सुनकर साकेत थोड़ा शांत सा हो गया और न जाने कैसे साकेत ने उस छोटी सी बात मे छुपा दर्द महसूस किया और कुछ देर बाद बोला, “कल शाम से तुम्हारी पढ़ाई शुरू करते हैं, तुम शाम के नाश्ते के बाद यहीं मिलना।” ये बोल कर जब साकेत चलने लगा था तभी छोटू बोल उठा “पढ़ाई-वाड़ाई के चक्कर में मुझे नहीं पड़ना।”

इस पर साकेत ने कुछ न कहते हुये बस एक छोटी सी स्माइल दी और चला गया। शायद उसने छोटू के मन को पढ़ लिया था कि चाहे वो कुछ भी कहे पर पढ़ाई उसे भी पसंद है ........ क्यूंकी साकेत ने प्लेन के रूप मे मिले उस पेज में कुछ लिखा हुआ देख लिया था ............ छोटू के हाथों से लिखी हुई ABCD..... कुछ गलत तो कुछ सही।

अगले दिन साकेत जब फिर शाम को वहीं गया तब उसने पाया कि छोटू वह पहले ही आ चुका था और साकेत ने उसे उसी का वही पेज दिया और फिर से ABCD लिखने को कहा।

कुछ दिनों के बाद ये सिलसिला आम हो गया था और अब रोज शाम को नाश्ते के बाद साकेत छोटू को कुछ न कुछ सिखाता-पढ़ाता और कभी-कभी उसे घर से आई कुछ खाने कि चीज़े भी खिलाता था। छोटू भी अब उससे काफी घुल-मिल सा गया था या यूँ कहें कि दोनों अब अच्छे दोस्त बन गए थे।

ये सब चीज़े देखते थे वहाँ बैठने वाले “फ़ौजी काका”, जो की कॉलेज में सेक्युर्टी गार्ड की नौकरी करते थे। उनकी शाम की शिफ़्ट हमेशा उसी स्टैंड की तरफ होती थी जहाँ छोटू और साकेत शाम को अपनी क्लास लगाते थे। लोग उन्हें फ़ौजी काका इसलिए कहते थे क्यूंकी वो हमेशा फ़ौजियों वाली जैकेट ही पहनते थे। फ़ौजी काका छोटू को उसकी शैतानियों की वजह से ज्यादा पसंद नहीं करते थे।
                  
कुछ दिन ये सिलसिला चलता रहा था, पर फिर साकेत की  सेमेस्टर परीक्षाएँ आ गईं और वो खुद में ही व्यस्त हो गया था और उसी बीच छोटू भी अपनी नानी के यहाँ गाँव चला गया था। सेमेस्टर परीक्षाएँ खत्म होते ही साकेत भी घर को निकल गया और जब कुछ दिन घर में बिताने के बाद साकेत हॉस्टल वापस आया तब फिर से उसकी लाइफ वैसी ही चलने लगी थी। 

पर इन सब के बीच कुछ कमी सी थी और वो शायद थी “छोटू” की। शायद छोटू अभी तक गाँव से नही आया था। कुछ दिन बीतने के बाद जब छोटू नहीं दिखा तब एक दिन साकेत ने मेस में एक आदमी से उसके बारे में पूछा तो उसने बताया कि छोटू अब नहीं रहा, गाँव में मलेरिया के चलते उसकी मौत हो गयी। ये सुनकर साकेत एक पल को शांत हुआ और फिर अपने उदास मन के साथ वह से चला गया।
                            
अब साकेत के साथ उसका छोटू दोस्त नहीं होता था और साकेत अब अकेला अकेला सा ही रहता था। पर कहते हैं न, “इस दुनिया में बड़े से बड़ा ज़ख्म भी लोगों को भूलना ही पड़ता है क्यूंकी जीवन चलते रहने का ही नाम है।”

अब मेस में भी छोटू कि जगह उसी की उम्र का एक लड़का आ गया था, ‘धीरज। अब साकेत भी नॉर्मल सा ही रहता था बस उसमे कुछ कमी जो साफ दिखती वो थी उसकी खुशियाँ, उस मेस में छोटू के गाने और वो प्यारी सी स्माइल और साथ ही कहीं न कहीं उस स्टैंड की ज़िंदादिली जो तभी तक थी जब तक साकेत और छोटू वह साथ आते थे।

एक दिन यूँ ही मेस में न जाने क्यूँ साकेत ने धीरज से वही सवाल पूछ लिया जो कभी छोटू से भी पूछा था............. “तुम स्कूल नहीं जाते?” धीरज ने उसका कोई जवाब न देते हुए उसे बस कुछ यूँ ही देखा और चला गया।
कुछ दिन बाद शाम को जब फ़ौजी काका वहीं स्टैंड के पास अपनी प्लास्टिक की कुर्सी में बैठे थे, तो अचानक उन्होने किसी की आवाज़ सुनी और जब उन्होने उस स्टैंड वाली  जगह देखा तो उनकी आखें भर आयीं

 ................. वहाँ कोई और नहीं बल्कि साकेत और धीरज बैठे थे और शायद धीरज कुछ पन्नों के साथ साकेत से कुछ लिखना सीख रहा था और कभी-कभी दोनों साथ मे हँस भी पड़ते थे और ये सब देख कर शायद आज फ़ौजी काका को कुछ याद आ गया था ....... और वो शायद “छोटू” था।             

Monday, November 7, 2016

NDTV India ban: First time a news channel barred




NDTV India, जी हाँ ! सही पहचाना आपने | भारत में “रियलिटी शो” (बाकी के न्यूज़ चैनल)से परे, एकलौता न्यूज़ चैनल | जब बाकी के न्यूज़ चैनल, माफ़ कीजियेगा ! “रियलिटी शो” जब अपनी बेबुनियाद ख़बरों से जोश में लातें हैं, तब वही यह चैनल, अपने तर्कों से हमें होश में लाता है |


अब बात करें हाल ही के घटनाक्रम की, तो मैं सरकार के इस फ़ैसले को ग़लत या सही नहीं ठहरा रहा | मैं बस देश के उस एकमात्र न्यूज़ चैनल की प्रतिष्ठा को बरकार रखने (जो की हमेशा रहेगी) की एक छोटी सी कोशिश कर रहा हूँ | आज मेरे जैसे कई लोग सिर्फ़ इस बात से आहत हैं कि इस देश में आज भी “आपके सितारों को परखने वाले”, “ज़ोर ज़ोर से चिल्लाने वाले”, “न जाने कौन कौन सी बेतुकी ख़बर दिखाने वाले” न्यूज़ चैनल्स को तो बढ़ावा दिया जा रहा है |


पर शायद यह क़दम सही भी है, क्योंकि जिस चैनल में सरकार के नुमायिंदों को भावभंगिमा करने की बजाए, तर्कों का सामना करना पड़े, उसका यही हश्र होना उचित है | क्योंकि तर्क और नेतागण ?? छोड़िये जनाब ! अगर तर्कों का ही सामना करने बैठे तो राजनीति कौन करेगा | तर्कों का सामना करने के लिए बुद्धिजीवियों की जरूरत होती है, जिनकी संख्या आज की राजनीति में कम ही है |


खैर ! मैं बाकी न्यूज़ चैनलों के मालिकों से सरकार के रिश्तों पर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता | वह उनकी आपसी बातें हैं | पर फिर से एक ज़िम्मेदार और ईमानदार न्यूज़ चैनल के लिए सिर्फ़ इतना कहूँगा, कि आपकी पत्रकारिता में बस तीन निम्नलिखित चीज़ों के कमी है,


1. मसाला


2. थोड़ा झूठ और रोमांच


3. भावभंगिमा


और आख़िर आप कैसे सिर्फ़ “सच और तर्कों की बुनियाद” में पत्रकारिता कर सकतें हैं, यह जाहिर तौर पर ग़लत है ;)


अंत में रविश जी के अंदाज़ में कुछ कहना चाहूँगा,


“कोई नहीं जानता ऐसा क्यूँ होता है, लेकिन सच यही है कि यहाँ यही होता है”

Wednesday, February 17, 2016

कुछ यूँ ही

ख़ुशी में इंसान को गानों की धुन,
और दुखी होने पर गानों के शब्द,
हमेशा ही रास आते हैं

- अल्फ़ाज़-ए-आशुतोष

Sunday, February 7, 2016

एक सोच

मेरे बारे में कोई क्या बातें करता है इससे मुझे कोई फर्क नहीं  पड़ता....क्योंकि लोग भी उसी के बारे में बातें करते हैं जिसने कुछ किया हो।

Monday, January 25, 2016

एक आवाज़

कई बार सोचता हूँ ....लोग हमे किताबें पढ़ने को क्यों कहते हैं...जबकि किताबों में जो लिखा हैं ...वैसा करने पर वही लोग कहते हैं, "ऐसा सिर्फ किताबों में होता है।"

Friday, October 16, 2015

Original by Alfaaz_e_Ashutosh

“ किस्मत के दस्तूरों का खेल है ज़िन्दगी,
  खेलतें सब हैं, और उन्हें पता भी नहीं “
                 

“ एहसासों से मिलकर ही असली अल्फाज़ बनतें हैं,

वरना ज़िन्दगी और शब्दों से खेलना तो सबको आता है”

Friday, October 2, 2015

Read it

“You can change the world with a great idea, but you can’t do it alone. You need people. People willing to put themselves on the line!”

#the fifth estate

Tuesday, July 7, 2015

#dirty_politics

मैं बस हालही में एक व्यक्ति के इस एक वाक्य के विषय में की “ मुझे रात भर नींद नही आई” इस पर सिर्फ इतना कहूँगा की जनाब रात में नींद सिर्फ दो तरह के लोगो को ही नहीं आती है ....... पहले जिनहे गलती का असली पछतावा हो ....  दूसरे जिनके मन में चोर हो .........अगर आपको असल मायेनों में पछतावा होता तो शायद आपने ये गलती ही न होने दी होती ...क्यूकी जिस विभाग में ये सब हुआ ... वो खुद आपके अधीन था ....तो आप को बुरा लगा या पछतावा हुआ ये कहना तो आपका गलत हैं ...और अगर ये गलत है ...तो जाहीर है दूसरा विकल्प जरूर सही होगा।
मैं बस आज कल के नेताओं से बस इतना अनुरोध करुंगा की किसी की शहादत पर 10-20 लाख के मुआवजे की जगह अगर आप सिर्फ निष्पछ जाँच ही करवा दें तो जनता को और शायद पीड़ित परिवार को थोड़ा जायदा सुकून मिलेगा।

और एक बात और मैं इन लोगो को एक पुरानी फिल्म का एक गाना भी याद दिलाना चाहूँगा ....”ये public है जनाब, सब जानती हैं”