‘छोटू’ ये शब्द हम कई बार सुनते हैं। कभी किसी ‘चाय की दुकान’ में, कभी सड़क के
किनारे बने ‘ढाबों’ में, या फिर किसी घर में काम कर रहे ‘नौकर’ की पहचान के
रूप में। कई बार ऐसा लगता है कि ये शब्द हमें उस शख़्स की ‘पहचान’ नहीं बल्कि
समाज में उसकी ‘औकात’ के बारें में बताते हों।
ऐसा ही एक छोटू था
एक किसी शहर के नामी इंजीन्यरिंग कॉलेज के कॉलेज हॉस्टल के मेस में। नाम की तरह
अभी उस छोटू की उम्र भी छोटी ही थी, यही कोई बारह-तेरह साल के आस-पास शायद। छोटू मेस में
स्टूडेंट्स की मेज़ तक पानी पहुँचाता और मेस के छोटे-मोटे और भी काम करता था। छोटू
अभी कुछ महीने पहले ही मेस में आया था, अपनी माँ के देहांत के बाद अपने
पिता के साथ।
छोटू के चेहरे पर वो
हर वक़्त मुस्कुराहट और उसका हमेशा गानों को गुनगुनाते रहना मेस में उसकी पहचान सी
बन गयी थी। अपनी इन्ही अदातों के चलते अब कई स्टूडेंट्स उसके दोस्त भी बन चुके थे।
अगस्त का महीना था
और कॉलेज में नए स्टूडेंट्स आने लगे थे और कॉलेज की परंपरा निभाते हुए सीनियर्स ने
अपने जन्मसिद्ध अधिकार ‘रैगिंग’ लेना भी शुरू कर दिया था।
उस रात मेस में सभी
हॉस्टल के बच्चे डिनर कर रहे थे और हमेशा की तरह छोटू उन्हें पानी वगैरह दे रहा था
कि तभी उसकी नजर मेज़ के कॉर्नर में दीवार की तरफ बैठे एक लड़के पे गई और छोटू को वो
कुछ डरा और परेशान सा लगा।
वो था मैकनिकल फ़र्स्ट
ईयर का ‘साकेत’, जो की हमेशा गम्भीर रहना पसंद करता था। पर आजकल घर वालो से
दूर, पहली बार हॉस्टल लाइफ का अनुभव और साथ ही कॉलेज और हॉस्टल
में लगातार होने वाली रैगिंग से वो बहुत परेशान सा था।
छोटू उस दिन पानी
देते वक़्त गाये जा रहा था, “जीवन चलने का नाम........,चलते रहो
सुबहो-शाम....।” ये पंक्तियाँ सुनकर साकेत छोटू की तरफ देखने लगा और छोटू
ने उसे एक छोटी सी मुस्कान पास कर दी। शायद कॉलेज में छोटू अब साकेत का पहला दोस्त
बनने वाला था क्यूंकि शायद कुछ रिश्ते एक छोटी सी मुस्कान से भी शुरू किये जा सकते
हैं।
ऐसे ही दिन बितते जा
रहे थे और छोटू-साकेत का ये मुस्कान वाली दोस्ती का दस्तूर चलता रहा और शायद अब
साकेत को छोटू एक अंजान दोस्त सा लगने लगा था।
एक दिन यूँ ही रात
में खाते वक़्त जब छोटू साकेत के पास पानी देने आया तो साकेत ने पूछा, “सिर्फ
यही करते हो कि स्कूल भी जाते हो?” इस पर छोटू ने जवाब ना देते हुए साकेत से छोटू ने खुद पुछ
लिया, “सिर्फ उदास और दुखी ही रहते हो या फिर हँसना भी जानते हो?”
ये कहकर छोटू अपने पानी के जग और अपनी मुस्कान के साथ वहाँ से चला गया।
रात भर बहुत देर तक
साकेत छोटू के जवाब या फिर कहा जाये तो सवाल के बारे में सोचता रहा।
अगले दिन सनडे था तो
साकेत और कुछ दोस्त कॉलेज ग्राउंड मे बैठे तफरी और दुनिया के हर स्टूडेंट की तरह
अपने कॉलेज की बुराई कर रहे थे। तभी साकेत ने देखा, आज छोटू
ग्राउंड में बैठा कुछ पन्नों के साथ कुछ बना रहा था। साकेत उसके पास गया और कुछ
देर तक उसे देखने के बाद कल वाला सवाल उससे फिर से पूछ लिया, इस पर छोटू ने
उसे देखा और कागज़ से बना एक प्लेन उसे पकड़ाते हुये अपने पास बैठने का इशारा किया
और कहा, “तुमको पता है मुझसे ये सवाल बहुत लोगों ने पूछा और फिर
थोड़ा ढुख जता कर और समाज़ के लिए थोड़ा गुस्सा दिखा कर, कुछ दिनों बाद
सब कुछ भूल जाते हैं।”
ये सब सुनकर साकेत
थोड़ा शांत सा हो गया और न जाने कैसे साकेत ने उस छोटी सी बात मे छुपा दर्द महसूस
किया और कुछ देर बाद बोला, “कल शाम से तुम्हारी पढ़ाई शुरू करते हैं, तुम शाम के
नाश्ते के बाद यहीं मिलना।” ये बोल कर जब साकेत चलने लगा था तभी छोटू बोल उठा
“पढ़ाई-वाड़ाई के चक्कर में मुझे नहीं पड़ना।”
इस पर साकेत ने कुछ
न कहते हुये बस एक छोटी सी स्माइल दी और चला गया। शायद उसने छोटू के मन को पढ़ लिया
था कि चाहे वो कुछ भी कहे पर पढ़ाई उसे भी पसंद है ........ क्यूंकी साकेत ने प्लेन
के रूप मे मिले उस पेज में कुछ लिखा हुआ देख लिया था ............ छोटू के हाथों
से लिखी हुई ABCD..... कुछ गलत तो कुछ सही।
अगले दिन साकेत जब
फिर शाम को वहीं गया तब उसने पाया कि छोटू वह पहले ही आ चुका था और साकेत ने उसे
उसी का वही पेज दिया और फिर से ABCD लिखने को कहा।
कुछ दिनों के बाद ये
सिलसिला आम हो गया था और अब रोज शाम को नाश्ते के बाद साकेत छोटू को कुछ न कुछ
सिखाता-पढ़ाता और कभी-कभी उसे घर से आई कुछ खाने कि चीज़े भी खिलाता था। छोटू भी अब
उससे काफी घुल-मिल सा गया था या यूँ कहें कि दोनों अब अच्छे दोस्त बन गए थे।
ये सब चीज़े देखते थे
वहाँ बैठने वाले “फ़ौजी काका”, जो की कॉलेज में सेक्युर्टी गार्ड की नौकरी करते थे। उनकी
शाम की शिफ़्ट हमेशा उसी स्टैंड की तरफ होती थी जहाँ छोटू और साकेत शाम को अपनी
क्लास लगाते थे। लोग उन्हें फ़ौजी काका इसलिए कहते थे क्यूंकी वो हमेशा फ़ौजियों
वाली जैकेट ही पहनते थे। फ़ौजी काका छोटू को उसकी शैतानियों की वजह से ज्यादा पसंद
नहीं करते थे।
कुछ दिन ये सिलसिला चलता रहा
था, पर फिर साकेत की
सेमेस्टर परीक्षाएँ आ गईं और वो खुद में ही व्यस्त हो गया था और उसी बीच
छोटू भी अपनी नानी के यहाँ गाँव चला गया था। सेमेस्टर परीक्षाएँ खत्म होते ही
साकेत भी घर को निकल गया और जब कुछ दिन घर में बिताने के बाद साकेत हॉस्टल वापस
आया तब फिर से उसकी लाइफ वैसी ही चलने लगी थी।
पर इन सब के बीच कुछ कमी सी थी और
वो शायद थी “छोटू” की। शायद छोटू अभी तक गाँव से नही आया था। कुछ दिन बीतने के बाद
जब छोटू नहीं दिखा तब एक दिन साकेत ने मेस में एक आदमी से उसके बारे में पूछा तो
उसने बताया कि छोटू अब नहीं रहा, गाँव में मलेरिया के चलते उसकी मौत हो गयी। ये सुनकर साकेत
एक पल को शांत हुआ और फिर अपने उदास मन के साथ वह से चला गया।
अब साकेत के साथ उसका छोटू
दोस्त नहीं होता था और साकेत अब अकेला अकेला सा ही रहता था। पर कहते हैं न, “इस दुनिया
में बड़े से बड़ा ज़ख्म भी लोगों को भूलना ही पड़ता है क्यूंकी जीवन चलते रहने का ही
नाम है।”
अब मेस में भी छोटू
कि जगह उसी की उम्र का एक लड़का आ गया था, ‘धीरज’। अब साकेत भी
नॉर्मल सा ही रहता था बस उसमे कुछ कमी जो साफ दिखती वो थी उसकी खुशियाँ, उस मेस में
छोटू के गाने और वो प्यारी सी स्माइल और साथ ही कहीं न कहीं उस स्टैंड की
ज़िंदादिली जो तभी तक थी जब तक साकेत और छोटू वह साथ आते थे।
एक दिन यूँ ही मेस
में न जाने क्यूँ साकेत ने धीरज से वही सवाल पूछ लिया जो कभी छोटू से भी पूछा
था............. “तुम स्कूल नहीं जाते?” धीरज ने उसका कोई जवाब न देते
हुए उसे बस कुछ यूँ ही देखा और चला गया।
कुछ दिन बाद शाम को जब
फ़ौजी काका वहीं स्टैंड के पास अपनी प्लास्टिक की कुर्सी में बैठे थे, तो अचानक उन्होने किसी
की आवाज़ सुनी और जब उन्होने उस स्टैंड वाली
जगह देखा तो उनकी आखें भर आयीं
................. वहाँ कोई और नहीं बल्कि
साकेत और धीरज बैठे थे और शायद धीरज कुछ पन्नों के साथ साकेत से कुछ लिखना सीख रहा
था और कभी-कभी दोनों साथ मे हँस भी पड़ते थे और ये सब देख कर शायद आज फ़ौजी काका को
कुछ याद आ गया था ....... और वो शायद “छोटू” था।
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